डॉ. घासीराम वर्मा - एक परिचय

राजस्थान के झुंझनु जिले के गाँव सीगड़ी में जन्में डॉ घासीराम वर्मा का बचपन अभावों भरा रहा है। पढाई के दौरान वे पैसे-पैसे के लिए मोहताज हुए। परन्तु उन्होंने हिम्मत नही हारी। उन्होंने गणित विषय में पीएच.डी. की। अमेरिका के रोडे आईलैंड विश्वविद्यालय, किग्स्टन में प्रोफेसर तक की यात्रा की।
मात्र यही प्रेरणा की बात नही, असल बात तो यह है कि अपने वेतन में से करोड़ रुपयों से अधिक की राशि गरीब प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के सहयोग के साथ-साथ राजस्थान में बालिका छात्रावास निर्माण के निमित्त अर्पित किए।
डॉ. वर्मा के इस सहयोग से अनेक प्रतिभाओं को संबल मिला वहीं बालिका शिक्षा की अलख जागृत हुई।
वर्मा हिन्दी भाषा के पैरोकारों में से भी एक हैं।

यहां ऐसे सपूत डॉ. घासीराम वर्मा के संघर्षमय जीवन की संक्षिप् झांकी है।

शायद इसको पढ़कर कोई आगे बढ़ने की हिम्मत कर सके----------
‍‍

लगातार------ यहां क्लिक करें












जीवन यात्रा

जन्म
जन्म व लोकविश्वास
प्रारम्भिक शिक्षा
प्रारम्भिक विद्यालय का परिवेश
बालस्वभाव और विद्यालय
शिक्षा प्राप्ति के शुभ लक्षण
घीसा से घीसाराम
सपूत के पैर पालने ...
तोलियासर होते हुए पिलानी विद्याध्ययन
घर की खस्ता आर्थिक हालत
अतिरिक्त भार व परेशानी
आजादी की ललक
पुस्तक प्रेम
शिक्षा प्राप्ति ही ध्येय
विवाह
राजस्थानी लोकगीतों ने दी रोटी
'नणदोई` की उपाधि
स्नातक का सफर
छात्रवृत्ति के रूप मे वरदान
मित्रता का मोल
बेरोजगारी की मार
नौकरी की शुरूआत
शिष्‍य की सद्भावना
संकटों का दौर
कर्नाटक के साथियों का अवदान
गुरुवर डॉ. बृजमोहन का दायित्व और संकट
मैस महाराज की दरियादिली
किराए का प्रबंध
वही पुरानी नौकरी
एक और उड़ान की तैयारी में
प्रो. पंत के रूप में देवदूत
पी-एच.डी.
घरवालों का रवैया
संकटों में सहारा
हड़ताल का योगदान
भाग में भाटा पड़ना
कलकत्ता की ओर
घासीराम बने डॉ. घासीराम
राह में भगवान मिले
डॉ. घासीराम की समस्या
अमेरिका से बुलावा
अमेरिका जाने बाबत प्रंबध
अमेरिका के लिए प्रस्थान
पत्नी रूकमणी की परेशानी
परिवार
बढ़ते कदम
स्वदेश आगमन
प्रतिभा को सलाम
पैसा बना फिर संकट
अमेरिका की धरा पर परिवार
ग्रीन कार्ड की प्राप्ति
परिवार की प्रगति
गर्मियों का सदुपयोग
काम ही पूजा
जनसेवा की प्रेरणा
अमरता की ओर

जन्म

घासीराम वर्मा का जन्म नवलगढ़ (झुंझुनूं) के पास सीगड़ी गांव में चौधरी रामूराम के पुत्र लादूराम तेतरवाल की धर्मपत्नी श्रीमती जीवणीदेवी की कुक्षि से अगस्त, १९२७ . को हुआ।

लगातार------ यहां क्लिक करें

जन्म व लोकविश्वास

चौधरी लादूराम के घर दो पुत्रों के बाद हुई दो संतान जन्मते ही लगातार काल-कवलित हो गई। इसी भय और पीड़ा से आक्रांत हो चौधरी जी ने टांई (झुंझुनूं) के नाथ संप्रदाय के बाबा केशरनाथ की शरण ली। केशरनाथजी ने उन्हें आश्वस्त किया और आशीष दी। बालक घीसा का जन्म हुआ।
एक लोक मान्यता है कि खंडित को बुरी आत्माएं छूती नहीं हैं और इसी मान्यता के चलते अनहोनी के भय से बालक को कुरूप करने का प्रयास किया गया तथा उनके नाक में छेद किया गया।
घसीटकर बुरी आत्मा ले जाए अतएवं पूर्व में ही घसीटने का उपक्रम किया और बालक को छाज में लिटा कर घीसा गया; बस यहीं से उनका नामकरण हुआ - घासी।


लगातार------ यहां क्लिक करें

प्रारम्भिक शिक्षा

बालक घीसाराम पांच-छह वर्ष का हो गया तब पिता लादूराम को उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिंता हुई। उस समय विद्यालयों का प्राय: अभाव ही हुआ करता था। गांव में विद्यालय नहीं था; सो पांच किलोमीटर दक्षिण दिशा में स्थित गांव वाहिदपुरा में निजविद्यालय में उनको प्रारम्भिक अध्ययन के लिए भेजा गया। वहां पर श्री मनीराम जी श्रेष्गुरु थे; उनके सान्निध्य में घीसा ने प्रारम्भिक अध्ययन प्रारम्भ किया। वाहिदपुरा में घीसा की मौसी रहती थी; साल भर वहीं रहकर अध्ययन किया।
अगली साल गांव के साथी कादरखान के साथ सीगड़ी से वाहिदपुरा आना-जाना करने लगे। स्कूल में मनोयोग से सीखते। घर आने पर पिताश्री भी कुछ स्नेहवश
सिखलाते।

लगातार------ यहां क्लिक करें

प्रारम्भिक विद्यालय का परिवेश

वाहिदपुरा में यह विद्यालय चौधरी गोरूराम जाट की बड़ी सारी पोळ में चलता था।
चिड़ावा (झुंझुनूं) के सेठ सूरजमल शिवप्रसाद जी दानी और समाजसेवी थे; वे ही अध्यापक पं. मनीराम जी को वेतन देते थे तथा मनीराम जी निरंतर शिक्षा की अलख जगाते थे।
विद्यालय का परिवेश बड़ा अपनापन लिये हुए था।
विद्यालय में तो कोई विधिवत कक्षाएं थी और ही कोई हाजरी रजिस्टर। बस अध्यापक मनीराम जी का मस्तिष् ही सब कुछ रिकॉर्ड
था।

लगातार------ यहां क्लिक करें

बालस्वभाव और विद्यालय

बालक घीसा का बालमन कभी चंचल हो जाता था। एक बार तो घीसा ने अपनी दादी से जिद्द करली कि वह स्कूल नहीं जाएगा। काफी मानमनोव्वल के बाद भी घीसा नहीं माना। दादी ने काफी समझाया। पिता लादूराम ने उन्हें डांटा-डपटा। इसी वक्त गांव की बामण दादी गई। बामण दादी ने प्रेम से शिक्षा की उपयोगिता बताई और स्कूलजाने हेतु लडाया। तब कहीं जाकर घीसा स्कूल जाने को तैयार हुआ।
वाहिदपुरा और सीगड़ी के बीच में दो जोहड़ पड़ते थे, उनमें गहरे फोग-झाड़ियां थी और उनमें सियार लोमड़ियों का स्थाई निवास था। बालक घीसा का मन शिक्षा से ऐसा जुड़ा कि वह बाल-स्वाभावगत भय से भयभीत हुए बिना निर्धारित समय पर गुरुवर के पास पहुंच जाता।
स्कूल में घीसा के पास एक स्लेट थी; जिसे वर्षों तक चलाने का लक्ष्य पिता ने बालमन में स्थापित कर दिया था।


लगातार------ यहां क्लिक करें

शिक्षा प्राप्ति के शुभ लक्षण

एक बार सुलेख लिखते वक्त घीसा से स्याही गिर गई। वह चिंतित हो गया। गुरु मनीराम जी ने इस बात को देखा और घीसा का मनोबल बढ़ाते हुए देव वाक्य निकाला कि स्याही गिरना, स्लेट टूटना और बस्ता फटना विद्या प्राप्ति के लक्षण होते हैं। अत: चिंतित मत हो, एक दिन तुम बड़े आदमी बनोगे।
गुरु का यह वाक्य घीसा के लिए आगे चलकर देव वाक्य बन
गया।

लगातार------ यहां क्लिक करें

घीसा से घीसाराम

एक दिन विद्यालय की छुट्टी होने पर कुछ बालकों ने घीसा को चिढ़ाने की दृष्टि से ''घीसा-घीसा-घिसिया...`` ऊंचें स्वर में राग अलाप किया।
घीसा चिढ़ा।
विद्यालय पोळ के स्वामी चौधरी गोरूराम जाट वहीं खड़े थे; उन्होंने शरारती बालकों को डांटा और कहा कि यह 'घीसा` नहीं है, यह 'घासी` है।
गुरुजी मनीराम जी ने इसें और अंलकृत कर 'घासीराम` नाम कर दिया।

लगातार------ यहां क्लिक करें

सपूत के पैर पालने ...

घासीराम लगनशील दृढ़ निश्चय का धनी रहा। विद्यालय में मनीरामजी जो कुछ याद करने देते वे सब हू--हू याद कर डालता। उन दिनों गणित का जोर होता था। गिनती, पहाड़े, जोड़, बाकी, गुणा, भाग सब बड़े जोर-शोर से सिखलाये जाते थे। घासीराम बड़ी तन्मयता से उनको सिखता और उत्साह से गुरुवर को सुनाता। गुरुजी भी उनकी लग्न देख प्रभावित होते।
तीसरी कक्षा में आते ही घासीराम गुरुजी के आदेश से सब सहपाठियों की स्लेट पर लिखे की जांच करने लगे।सहपाठी चुन्नीलाल, रामसिंह, रामनारायण, तारासिंह (हेतमसर) सब घासीराम की होशियारी की प्रशंसा करते थकते थे।
सही कहा है कि सपूत के पैर पालने में ही पहचाने जा सकते
हैं।

लगातार------ यहां क्लिक करें

तोलियासर होते हुए पिलानी विद्याध्ययन

घासीराम चौथी कक्षा में कुछ दिनों तोलियासर गया। तोलियासर वाहिदपुरा से कुछ नजदीक था।
बाद में आगे के अध्ययन हेतु नवलगढ़ ठिकाने के ठिकानेदार हेमसिंह राठौड़ के अनुशंसा के आधार पर पिलानी विद्यालय के प्रभारी शुकदेव पांडे ने घासीराम को प्रवेश देते हुए अढ़ाई रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति भी स्वीकृत कर दी।

घर की खस्ता आर्थिक हालत

चौधरी लादूराम साधारण व धार्मिक प्रवृत्ति के कृषक थे। मेहनत उनका धर्म था। पूरे परिवार का काम ऊंट पर लदान लादने के मेहनताने से चलता था। ऊंट की पीठ पर भादरा, गोगामेड़ी, छानी, रसलाना (हनुमानगढ़), नारनौल, हिसार व भिवानी से अनाज ढोया जाता था। लदान के अभाव में चूने का पत्थर निकालकर बेचना बाध्यता थी। घर की आर्थिक परिस्थितियां विषम थी। पाई-पाई की बड़ी कीमत थी।
यह वह जमाना था जब एक रूपये का ३०-३५ सेर अनाज आ जाता था। घी भी डेढ़ सेर से ज्यादा ही आता था।

अतिरिक्त भार व परेशानी

घासीराम का पिलानी में छात्रावास का खर्चा साढ़े तीन या चार रूपये था। अढ़ाई रूपये छात्रवृत्ति के रूप में मिल गये, शेष रहे रूपयों की पूर्ति घरवालों के लिए बड़ा संकट थी। अकालों की मार और विपरीत परिस्थितियां। लेकिन चौधरी लादूराम ने हिम्मत नहीं हारी और घासीराम के संघर्षों की यात्रा में विराम नहीं आने दिया। जैसा कुछ बना सदैव अर्पण किया। वे पैदल ही सीगड़ी से पिलानी जाकर जो कुछ बनता घासीराम को सम्हला आते।
मगर यह घासीराम के लिए पूर्णता नहीं थी।

आजादी की ललक

बालक घासीराम आठवीं में पिलानी में अध्ययनरत था तब गांधीजी के नेतृत्व में देश में अंग्रेजो भारत छोड़ो की गुंज थी। घासीराम पर भी आसपास के माहौल का असर पड़ा। वह विद्यालय छोड़ घर आ गया।
दिन भर मन में क्रांति की ज्चाला धधकती और उस दिशा में जाने को मन बनता।
परंतु बाद में संस्कृत के अध्यापक गुलाबदत्त शर्मा के समझाने पर विद्यालय में विद्याध्ययन सुचारू रूप से पुन: शुरू हुआ।

पुस्तक प्रेम

छुटि्टयों में गांव से मंडावा जाकर वहां के पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ना घासीराम का जुनून था। मंडावा पुस्तकालय से ही आगे चलकर उन्होंने प्रेमचंद के 'कर्मभूमि`, 'रंगभूमि` व 'गोदान` पढ़े। कहानी 'ईद` आज भी उनकी पसंद है। सस्ता साहित्य मंडल की ढेरों पुस्तकें पढ़ डाली। गांधी जी की जीवनी और 'नरमेध` पढ़ी गई रचनाओं में सबसे प्रभावित करने वाली रही। महादेवी वर्मा का रेखाचित्र 'घीसा` को तो भला वे कैसे भूल सकते हैं।
पढ़ने का वही जुनून आज भी कायम है।

शिक्षा प्राप्ति ही ध्येय

जैसे-तैसे करके घासीराम ने नवीं तक का सफर तय किया। दसवीं में आते-आते आर्थिक संकट गहरा गया। जहां छात्रवृत्ति तीन रूपये हुई वहीं छात्रावास खर्चा पांच रूपये हो गया। दसवीं के अंतिम दिनों में घासीराम ने तीन टयूशन करवाए। तीन रूपये प्रति टयूशन मिले। राह कुछ आसान हुई लेकिन तब तक खाना खर्चा आदि भी आठ-नौ रूपये हो चुके थे। परंतु घासीराम का एकमात्र लक्ष्य जैसे-तैसे कर शिक्षा प्राप्ति रहा।
संयोग से भगवद् गीता के दूसरे अध्याय को कंठस्थ करके प्रथम पुरस्कार व एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला। अंग्रेजी कविता प्रतियोगिता में भी स्थान हासिल किया। इस इनाम से कुछ अतिरिक्त आमदनी हुई। इन रूपयों को घासीराम ने डाकघर में जमा करा दिया।
दसवीं की परीक्षा के बाद छुटि्टयों में घासीराम गांव नहीं गया और छात्रावास में रहकर चार-पांच टयूशन करवाएं। खर्चा काटकर कुल २६ रूपये बचा लिये।
डाकघर जमा कुल ४३ रूपये हो गया।

कॉलेज के सपने : घर की स्थितियों के विपरीत घासीराम का मन कॉलेज के सपने लेने लगा। उन दिनों कॉलेज की प्रवेश फीस ३५ रूपये थी। घासीराम के पास कुल जमा ४३ थे; सो सपने और बलवान हुए। दसवीं का परिणाम आने के बाद घासीराम ने घरवालों का मानस टटोला और नौकरी की अहमियत के बावजूद भी सहयोग की स्वीकृति पा ली।
कॉलेज में छात्रवृत्ति पांच रूपये मिलने लगी। टयूशनें भी बराबर जारी रहीं।
काम चलते-चलते १९४८ में इंटर कर ली।

विवाह

इंटर करते ही घरवालों ने आखातीज के अबूझ शुभ मुहुर्त में नयासर के गंगारामजी की सुपुत्री रूकमणी से आपका विवाह कर दिया।
रूकमणी अनपढ़ थी।

राजस्थानी लोकगीतों ने दी रोटी

पिलानी में उन दिनों हिंदी विभाग में प्रसिद्ध विद्वान डॉ. कन्‍हैयालाल सहल थे। वे लोकगीतों के संकलन का काम कर रहे थे। सो उन्होंने विद्यार्थियों का सहारा लेते हुए कहा कि जो विद्यार्थी गीत लिखकर लाएगा उसे पैसे मिलेगें। बस घासीराम को और क्या चाहिए था।
पैसा ही उनके लिए आवश्‍यकता थी।
घासीराम जब गांव आया तो गांव के ही मालाराम हरिजन की गीतेरण पत्नी से सुन-सुनकर घासीराम ने ६० गीत लिखें; जिनकी एवज में उन्हें सहल साहब से ३० रूपये मिले। उन रूपयों से घासी ने छात्रावास मैस का खर्चा बड़े मजे से चलाया।

'नणदोई` की उपाधि

लोकगीतों के संकलन के दौरान घासीराम को सारे गीत कंठस्थ हो गए। उनके गले में वे गीत फबते भी बहुत थे। 'नणदोई` लोकगीत तो उनके गले से इतना अच्छा लगता कि हर जगह उसे सुनने की चाह होने लगी। और तो और घासीराम इसी कारण 'नणदोई` नाम से प्रसिद्ध भी हो गए।

इसी गीत को आगे चलकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में साथी रामेश्‍वरसिंह (बाद के आई.ए.एस.) की फरमाइश पर सुनाया; वहीं वनस्थली विद्यापीठ में मित्र आनंदीलाल रूंगटा (आई.ए.एस.) की भूमिका के कारण नणदोई गीत सुनाना पड़ा।

स्नातक का सफर

घासीराम का बी.ए. का सफर भी पूर्ववत आर्थिक संकटों से घिरा रहा। १९५० में बी.ए. फाइनल के अंतिम दिनों में यह संकट और गहरा गया। नौबत मैस खर्च जमा न करने वालों को खाना बंद व छात्रावास से निकालने की धमकी तक आ पहुंची। दो-तीन दिनों की अग्रिम चेतावनी भरी खाना बंद सूची छात्रावास में चस्पा कर दी गई। घासीराम का नाम उस सूची में आने से भला कैसे रह सकता था। मगर घासीराम करे तो क्या करे ? घरवालों के पास पैसे कहां ? उधर शादी को भी ऊपर से दो साल और हो गये। परीक्षा सिर पर, छात्रावास का यह संकट और !

हरियाणा के साथियों द्वारा मदद : घासीराम का नाम खाना बंद होने वालों की सूची में गुड़गांव, हरियाणा मूल के कई सहपाठियों ने देखा; जो अक्सर घासीराम से गणित के सवाल पूछा करते थे तो वे तिलमिला गये। उन्होंने बिना घासीराम को बताये उनके बकाया का भुगतान किया।
घासीराम की इस उपकार के बदले में आंखे नम होने से भला कैसे रह सकती थी।

छात्रवृत्ति के रूप मे वरदान

घासीराम के जीवन में छात्रवृत्तियों का बड़ा योगदान रहा है। हर कदम पर उनको छात्रवृत्तियां मिलती गई, और वे आगे बढ़ते गए। छात्रवृत्तियां उनके जीवन में वरदान बनकर आई। इसी संकट के अवसर पर भी सहपाठी संपतराम (आगे चलकर राजस्थान सरकार में मंत्री रहे) की सलाह पर राजस्थान सरकार से आर्थिक सहायता चाहने का आवेदन करा। भाग्य से २०० रूपये का चैक मिला।
घासीराम ने सबसे पहले अपने गुड़गांव वाले शुभचिंतकों का अहसान चुकाया। शेष बचे १०० रूपये मित्र गंगाप्रसाद शारदा के भ्रमण की आवश्‍यकता की पूर्ति में सहायक बने।

मित्रता का मोल

बी.ए. फाइनल की परीक्षा के दौरान घासीराम और उनका मित्र रामेश्‍वर जांगिड़ साथ-साथ अमेरिका भ्रमण के सपने लेने लगे। मगर मुसीबत यह थी कि रामेश्‍वर कई वर्षों से बी.ए. की परीक्षा दे रहा था परंतु उत्तीर्ण नहीं हो पा रहा था। परीक्षा में मित्र की मदद करने की घासीराम ने सोची और अपनी गणित की उत्तर पुस्तिका में रामेश्‍वर के नंबर लिखे और रामेश्‍वर से अपने नंबर लिखवाये। रामेश्‍वर उत्तीर्ण हो गया। मगर घासीराम मित्रता का मोल चुकाने के वशीभूत होने के कारण प्रथम श्रेणी से वंचित हो गए।

बेरोजगारी की मार

जून, १९५० ई. में घासीराम ने बी.ए. करली। गांव आ गया। पर करने के लिए क्या ? स्नातक बनने की खुशी काफूर हो गई। घर में पत्नी और। घरवाले, गांववालों के उवाच। करे तो क्या करे। समय व्यतीत करना बड़ा मुश्‍िकल था। मंडावा जाकर पुस्तकालय में पढ़ना या फिर मित्र रामेश्‍वरलाल जांगिड़ के साथ गप्पे लगाना ही काम रह गया। सही है बेराजगारी बीमारी से कहीं अधिक दर्द भरी होती है।

ऐसे कठिन दौर में एक दिन घासीराम के पास इस्लामपुर (झुंझुनू) निवासी सहपाठी रहे राधेश्‍याम शर्मा का पत्र आया कि बी.एल. स्कूल, बगड़ (झुंझुनू) में गणित अध्यापक का पद खाली है। चले आओ।

नौकरी की शुरूआत

घासीराम इस्लामपुर होते हुए राधे याम को साथ ले बगड़ पहुंचा। बी.एल. हाई स्कूल के उन दिनों हैडमास्टर श्री अब्रोल थे। घासीराम ने उनसे पिलानी में भूगोल पढ़ी थी। राधेश्‍याम की प्रशंसात्मक उक्तियों व अब्रोल साहब की दरियादिली से घासीराम को वह नौकरी मिल गई। घासीराम की खुशी का पारावार नहीं था।
१२ जुलाई से घासीराम ने १०० रूपये प्रतिमाह की नौकरी शुरू कर दी।

घासीराम का जीवन निर्बाध गति से चलने लगा। खाना २० रूपये प्रतिमाह, मकान २ रूपये प्रतिमाह बस। बाकी सारा पैसा घर ज्यों का त्यों भेज देते। घासीराम भी खुश घरवाले भी खुश।
उन्हीं दिनों घासीराम ने २०-२५ गणित के छात्रों को टयूशन पढ़ाना भी प्रारम्भ कर दिया। जो मिलता वह डाकघर में जमा कर देता। आगे बढ़ने के सपने अभी मरे नहीं थे।

उच्च अध्ययन हेतु संघर्ष भरे सफर का फिर से चुनाव : साथी अध्यापक रमेश गौड़ की सलाह से एम.ए. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से करने का मानस बना। घरवालों के भारी विरोध के बावजूद मिली-मिलायी नौकरी छोड़ घासीराम बनारस रवाना हो गए। वे ५ जुलाई, १९५२ को बनारस पहुंचे। यूनिवर्सिटी व छात्रावास में प्रवेश लिया। कुछ पैसे पास थे, कुछ बगड़ डाकघर में जमा थे; वो बनारस डाकघर में स्थानांतिरत करवा लिए। काम बन गया। एम.ए. पूर्वार्द्ध की परीक्षा तक कोई संकट नहीं आया।

विद्याधर कुलहरि व सरदार हरलालसिंह का जीवन में योगदान : झुंझुनूं एम.ए. पूर्वार्द्ध परीक्षा देकर आना हुआ। मगर संग आगामी सत्र के अर्थ संकट का भी आगमन हुआ। घासीराम ने अपना यह संकट हंसासर के हरलालसिंह को बताया। हरलालसिंह ने योग्य घासीराम की मदद बाबत सोची। उन्हें झुंझुनूं के प्रसिद्ध वकील व धनाढ़्य समाजसेवी विद्याधर कुलहरि के पास ले गया। सारी स्थितियां बताई गई। विद्याधर जी ने घासी की योग्यता को नजरों से तोला और संतुष्‍ट हो तत्काल १०० रूपये दे दिए। एकबारगी काम चल गया।

एम.ए. उत्तरार्द्ध के दौरान दिसम्बर में घासीराम छुटि्टयां बिताने बनारस से फिर वापिस आए। वही अर्थाभाव। इस समय सरदार हरलालसिंह के नेतृत्व की तूती बोलती थी। जनवरी, १९५४ में घासीराम ने उनसे जयपुर जाकर मदद की प्रार्थना करने की सोची। सरदार हरलालसिंह पारखी थे। उन्होंने अनजान घासीराम का मौल जाना और अपने परिचित रामजी काक को निर्देशित किया। रामजी काक ने १०० रूपये थमा दिए। ये रूपये घासीराम के लिए चार महिनों के मैस भुगतान की पूर्णता थी। सरदार हरलालसिंह जी का आशीर्वाद ले घासीराम गंतव्य की ओर रवाना हुए।

शिष्‍य की सद्भावना :

मैस व यूनिवर्सिटी फीस का भुगतान बचत व रामजी काक द्वारा दिए गए पैसों से हो गया। कुल जमा ५ रूपये बचे। आगे क्या होगा ?
अव्वल आना तो दूर परीक्षा कैसे दे पाऊंगा ?
घासीराम के लिए यह बड़ी समस्या थी।
उन्हीं दिनों बगड़ में पढ़ाए गए अपने एक शिष्‍य पुरुषोत्तम रूंगटा का पत्र घासीराम के पास आया था। रूंगटा ने पूछा था कि बनारस कैसी जगह हैं ? वह इंजीनियरिंग करने बनारस आना चाहता है। साथ ही गुरुजी के हालचाल भी पूछे थे। घासीराम ने जवाब लिखते हुए अपने आर्थिक संकट का हवाला भी निस्संकोच दिया। रूंगटा धनाढ़्य परिवार से था। उसने पत्र पाते ही गुरु घासीराम के लिए ३० रूपये का मनिऑर्डर करवा दिया। घासीराम को जैसे सबकुछ मिल गया। उन तीस रूपयों की कीमत घासीराम के लिए आज के तीस लाख रूपयों से भी कहीं अधिक है। इन ३० रूपयों से घासीराम ने फरवरी की फीस जमा करवा दी।

संकटों का दौर

अप्रेल में फिर आर्थिक संकट आ खड़ा हुआ जब नोटिस बोर्ड पर मार्च की फीस जमा कराने की सूचना के साथ नाम काटने की चेतावनी चस्पा हुई। घासीराम कहां से लाए पैसा ? आखिरकार भ्रमण हेतु दिए गए १०० रूपयों के बहाने पिलानी के मित्र गंगाप्रसाद शारदा याद आए। घासीराम ने गंगाप्रसाद को पत्र लिखा। शारदा की बदौलत एम.पी.बिड़ला का १०० रूपये का मनिऑर्डर आ गया। घासीराम खुशी से १०० रूपये लेकर रजिस्ट्रार कार्यालय पहुंचे। क्लर्क ने कुल बकाया देखा। मार्च, अप्रेल व मई की फीस व विलम्ब शुल्क कुलमिलाकर १४५ बने। १०० रूपयों को क्लर्क ने जमा नहीं किया। जमा करे तो सारे १४५ रूपये। संकट फिर गहरा गया। ४५ रूपये पहाड़ बन गए।

यह दौर घासीराम के लिए संकटों का दौर था।

कर्नाटक के साथियों का अवदान

घासीराम के दुविधा भरे मन को कर्नाटक के निवासी और सहपाठी के.एस.नागराज, शिवकुमारन व महादेवन शास्त्री ने समझा। उन्होंने सत्र के अंतिम दिनों में बिना किसी संकोच के घासीराम को ४५ रूपये पकड़ा दिये। घासीराम की आंखें छलक आई।
कहां राजस्थान, कहां कर्नाटक ?
घासीराम ने १४५ रूपये यूनिवर्सिटी में जमा करवाए। निश्‍िचतता के साथ एम.ए. की परीक्षा दी।

आगे चलकर महादेवन शास्त्री भारत में ही प्रोफेसर हो गए। १९७० में वे सेवानिवृत्ति हुए।
नागराज अमेरिका की बड़ी कंपनी में संलग्न हुए; वहीं शिवकुमारन ने लंदन यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी. की और कनाडा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गए।

घासीराम आज भी उनके संपर्क में हैं।

गुरुवर डॉ. बृजमोहन का दायित्व और संकट

परीक्षा की समाप्ति के क्षणों में गुरुवर डॉ. बृजमोहन ने घासीराम व उसकी ही सहपाठिन प्रियवंदा शाह को घर बुलाया। घासीराम व प्रियवंदा दोनों ही होशियार थे, घनिष्‍ठ थे और दोनों में से कोई एक टॉप करने वाला था। बृजमोहन ने अपनी गणित की एक-एक पांडुलिपि दोनों को दी और सवाल हल कर लौटाने का दायित्व दिया। प्रियवंदा (जो कांग्रेसी नेता व पूर्व उच्चायुक्त प्रकाशजी की भतीजी व डॉ. भगवानदास जी की पोती थी व सम्पन्न थी) के लिए तो कुछ खास नहीं लेकिन घासीराम के लिए कंगाली में आटा गीला। मार्च से ही मैस का कुछ बकाया था। अब पांडुलिपि हल के बहाने १०-१५ दिनों का अनावश्‍यक खर्च। करें तो क्या करें ? कैसे करें मना गुरुवर को।

मैस महाराज की दरियादिली

विश्‍वविद्यालय में 'अदेयता प्रमाण पत्र` जमा करवाना जरूरी था। जिस पर मैस का बकाया न होने का प्रामाणीकरण मैस इंचार्ज के सामने मैस महाराज को करना था। घासीराम के पास देने के लिए कुछ नहीं था। उन्होंने मैस महाराज को वस्तुस्थिति बताई और गांव जाकर बकाया भेजने का आश्‍वासन दे हस्ताक्षर करने का निवेदन किया, क्योंकि 'अदेयता प्रमाण पत्र` के अभाव में डिग्री भी रोकी जा सकती थी। महाराज ने निर्मल व्यवहार व तरलता को समझा व हामी भरी। मगर मैस इंजार्च के आगे बात बिगड़ी और मैस महाराज ने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। घासीराम के सामने संकट खड़ा हो गया।

घासीराम ने दुबारा महाराज को समझाया और उनके हस्ताक्षरों का अहसान करने का निवेदन किया। महाराज ने घासीराम के निवेदन में धोखा नहीं होने का संकेत पाया और वह दुबारा तैयार हो गया तथा मैस इंजार्च के पास जाकर हस्ताक्षर करके दरियादिली दिखाई।

किराए का प्रबंध

मैस महाराज ने तो अहसान कर दिया और वह संकट टाल दिया लेकिन अब संकट यह था कि बिना किराए गांव कैसे जाया जाए !
आखिर यूनिवर्सिटी में ही पढ़ने वाले रणवीरसिंह का ख्याल आया। रणवीरसिंह पिलानी मे घासीराम से सीनियर छात्र था। घासीराम उसके पास पहुंचा। उधार का निवेदन किया। रणवीरसिंह ने घासीराम को ३० रूपये देकर संकट टाला। घासीराम अहसानमंद था।

आगे चलकर रणवीरसिंह जोहन्स होपकिन्स यूनिवर्सिटी, सागर यूनिवर्सिटी, अरविंद कॉलेज-दिल्ली होते हुए भारतीय संसद में सांसद के हैसियत तक पहुंचे।

महाराज का बकाया चुकता : बनारस से गांव आकर घासीराम ने वाहिदपुरा के मित्र व सरकारी नौकर रामे वरलाल से १०० रूपये उधार लिये और बनारस महाराज को भेजे।

वही पुरानी नौकरी

घासीराम एम.ए. कर चुका था लेकिन बेराजगार।
करे तो क्या करे।
गांव में रहकर क्या करे ?
झुंझुनूं के विद्याधर कुलहरि ने घासीराम को अपने लड़के को पढ़ाने का काम दे दिया। घासीराम को प्रसन्नता हुई। झुंझुनूं में रहने की ठौर मिल गई। घासीराम वहां रहकर अखबारों में रिक्त पदों को ढूंढ़ने लगे। आवेदनों का दौर चला। आखिरकार बगड़ की उसी पुरानी स्कूल में पद खाली होने का समाचार मिला। घासीराम पुन: उसी राह पर चल पड़े। श्री अब्रोल साहब ने १०० रूपये तनख्वाह और २० रूपये महंगाई भत्ते कुल १२० रूपये में घासीराम को रख लिया। मगर घासीराम का मन कचोटने लगा। बनारस से एम.ए. करने का क्या लाभ?

एक और उड़ान की तैयारी में

एक दिन घासीराम पिलानी गए। वहां प्रोफेसर दूलसिंह से मिले। प्रोफेसर साहब ने गणित के नए रिसर्च प्रोफेसर आने का समाचार बताया व रिसर्च करने को प्रेरित किया। रिसर्च प्रोफेसर के पास पहुंचे। उन्होंने हामी भरली मगर डर फिर उसी आर्थिक संकट का। घासीराम रिसर्च प्रोफेसर डॉ. विभूतिभूशण सेन की सलाह से प्रिसिंपल नीलकांतन से प्रार्थना ले मिले। प्रिसिंपल साहब ने ७५ रूपये मासिक छात्रवृत्ति की स्वीकृति जता दी। घासीराम को राहत मिली।

बगड़ आकर अब्रोल साहब को अपनी योजना बताई और वहां से दायित्व मुक्त हो शोध कार्य का लक्ष्य ले खुशी साथ पिलानी पहुंचे। मगर संकट घासीराम का कहां पीछा छोड़ने वाले था। प्रिसिंपल नीलकांतन ने बताया कि श्री जी. डी. बिड़ला जी ने अचानक ग्रांट कम कर दी इसी वजह से तुम्हें २५ रूपये प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलेगी।
घासीराम हतप्रभ रह गए।
न घर के रहे न घाट के।
नौकरी भी गई और शोध की दिशा में भी २५ रूपये से काम नहीं चल सकता।

प्रो. पंत के रूप में देवदूत

घासीराम को आर्ट्स कॉलेज, पिलानी के संस्कृत प्रोफेसर ए.एस. पंत की दरियादिली का पता चला। वे उनसे मिले। महाराष्ट्रियन पंत जी घासीराम को लेकर नीलकांतन के पास पहुंचे। चर्चा के बाद तय हुआ कि घासीराम को ट्यूटोरियल कक्षाएं लेनी होगी; एवज में ५० रूपये मिलेंगे।
घासीराम को और क्या चाहिए ?
मेहनत करना तो समय की आवश्‍यकता सदैव रही है।
पंत जी 'बुद्ध भवन` के वार्डन थे। घासीराम को वहीं कमरा मिला गया। प्रो. पंत घासीराम के जीवन में देवदूत बनकर मददगार बने।
बुद्ध भवन की मैस का खर्चा ज्यादा था सो घासीराम ने आर्थिक विवशताएं चलते महादेव भाई छात्रावास की सस्ती मैस का भी सहारा लिया।

पी-एच.डी.

घासीराम ने रिचर्स प्रोफेसर सेन साहब की सलाह से इंजीनियरिंग विशय 'इलास्टीसीटी` शोध का विशय चुना। पुस्तकालय से पुस्तकें चुनीं और पी-एच.डी. विषय को मजबूती देने लगे। साथ ही ट्योटोरियल के तहत छात्रों को सप्ताह में तेरह पीरियड पढ़ाने भी होते थे। छात्रों के परेशानी भरे सवालों के संदर्भ में पूरी तैयारी की आवश्‍यकता व शोध कार्य की तैयारी से घासीराम किंचित विचलित हुए। निर्णय पर एक बारगी सोचा।

घरवालों का रवैया

घरवाले एम.ए. करने बनारस जाने के वक्त से ही नाराज थे। यही हाल ससुराल का था। खैर ...। वापिस आकर नौकरी से कुछ आ वस्त हुए लेकिन फिर यह पढ़ाई। उनकी समझ से परे थी। उन्हें लगा कि घासीराम में कहीं दिमाग की कमी है तभी तो यह ऐसे गलत निर्णय बार-बार कर रहा है। पागल नहीं तो क्या है ? लोग दसवीं करते ही घरवालों की गरीबी दूर करने में लग जाते हैं जबकि एक यह है कि अभी भी संकटों को न्यौता दे रहा है। पी-एच.डी. से डॉक्टर बनेगा किसी ने बताया तो घरवालों का सीधा सा सवाल था कि डॉक्टर बनकर क्या इलाज करेगा ?

संकटों में सहारा

उन दिनों पिलानी में प्रोफेसर टयूशन नहीं करवा सकते थे पर घासीराम शोध छात्र थे। अतएवं यह भांप अध्ययनरत एक सिख छात्र दलजीतसिंह ने घासीराम से टयूशन का निवेदन किया। बी.ए. के विद्यार्थी दलजीत को टयूशन कराने से घासीराम को ५० रूपये अतिरिक्त आमदनी होने लगी। साथ ही समृद्ध दलजीतसिंह ने दिल्ली से गणित की प्रसिद्ध 'खन्ना गाइड` घासीराम को लाकर दे दी। घासीराम को काफी राहत मिली। अब सवाल हल करने में काफी समय बच जाता और यह समय शोध के लिए बड़ा महत्वपूर्ण था।

हड़ताल का योगदान

उन्हीं दिनों प्रिसिंपल नीलकांतन का छात्रों ने विरोध कर दिया और हड़ताल कर दी। माहौल तनावपूर्ण हो गया। नीलकांतन का कॉलेज छुटना लगभग तय हो गया। इसी माहौल को समझकर प्रो. सेन ने घासीराम को सलाह दी कि तुम नीलकांतन साहब के पास अपनी छात्रवृत्ति बढ़ाने की अपील लेकर जाओ, क्या पता जाते-जाते तुम्हारा भला कर जाएं। सेन साहब का तीर सही लगा। नीलकांतन साहब ने छात्रवृत्ति बढ़ा दी। दो दिन बाद नीलकांतन साहब पिलानी छोड़कर रवाना हो गए।
मित्रा साहब नए प्रिसिंपल बनकर आए।

कॉलेज से अब घासीराम के प्रति १२५ रूपये का योगदान होने लगा। दलजीतसिंह के अलावा एक ५० रूपये का टयूशन और कर लिया। कुल २२५ हो गये।
घासीराम को और चाहिए क्या ?
उस वक्त एक लेक्क्चर का ही २०० रूपया वेतन था।

भाग में भाटा पड़ना

घासीराम आर्थिक संकटों से उबरे ही थे कि रिसर्च प्रोफेसर सेन साहब पिलानी छोड़कर कलकत्ता की जादवपुर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गए। घासीराम के लिए यह समाचार भाग में भाटा पड़ने जैसा था।
क्या करे ?
पिलानी छोड़ने का निर्णय वह कैसे करें ?
कलकत्ता जाए तो कैसे ?
आखिर घासीराम ने मित्रा साहब से निवेदन कर पिलानी में ही अध्यापन के साथ-साथ रिसर्च तैयारी की व्यवस्था पूर्ववत जची रहने में सफलता अर्जित की।

कलकत्ता की ओर

अढ़ाई महिने की गर्मियों की छुटि्टयों में घासीराम कलकत्ता सेन साहब के निर्देशन में अधूरा कार्य पूरा करने का लक्ष्य लेकर पहुंचे। बगड़ के सेठ शिवभगवान जी की गद्दी पर घासीराम ने शरण ली। शिवभगवान का छोटा भाई गुलझारीलाल बगड़ में घासीराम से पढ़ चुका था।

इसी संघर्ष के बीच जादवपुर यूनिवर्सिटी जाकर प्रो. सेन का मार्गदर्शन लेते और काम की पूर्णता की ओर बढ़ने का प्रयास करते।

मित्रा साहब का उपकार : अगले सत्र में प्रिसिंपल मित्रा साहब ने घासीराम को २०० रूपये प्रतिमाह की केन्द्रीय छात्रवृत्ति स्वीकृत करवा दी।

घासीराम बने डॉ. घासीराम

दो साल के लगभग समय में घासीराम ने अपना शोध प्रबंध पूर्ण कर लिया। और संघर्ष के थपेड़े खाते-खाते दिसम्बर, १९५७ ई. में घासीराम आखिरकार डॉ. घासीराम बन गए।

राह में भगवान मिले

कहते हैं कि जिसकी नियत साफ हो उसे राह में भगवान मिल जाते हैं। यही नेकदिल और आत्मविश्‍वास से लवरेज डॉ. घासीराम के साथ हुआ। जनवरी, १९५८ में इंडियन साइंस कांग्रेस की कलकत्ता कांफ्रेंस में घासीराम भी शामिल हुए। बैठक के बाद चाय की टेबल पर गणितीय विज्ञान संस्थान, कुरांट (न्यूयार्क) के अमेरिकन विद्वान प्रो. के.ओ. फ्रेडरिक्स से परिचय हुआ। प्रो. फ्रेडरिक्स ने घासीराम की योग्यता को समझा और अमेरिका का निमंत्रण दे डाला। घासीराम को सचमुच ही राह में भगवान मिल गया।

डॉ. घासीराम की समस्या

प्रो. फ्रेडरिक्स का निमंत्रण जहां घासीराम के लिए खुशियों भरा था; वहीं अमेरिका जाने में आवश्‍यक धन घासीराम के लिए समस्या थी। घासीराम के लिए अमेरिका जाना बहुत दिनों का सपना था; वह पूरा होने का अवसर आया था, अतएवं घासीराम ने बिना संकोच किए प्रो. फ्रेडरिक्स के सामने समस्या रख दी। प्रो. फ्रेडरिक्स ने मुस्काराते हुए धन की समस्या के प्रति आश्‍वस्त किया। घासीराम को जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई।

प्रो. फ्रेडरिक्स की सलाह : प्रो. फ्रेडरिक्स की सलाह के अनुसार डॉ. घासीराम ने पोस्ट डॉक्टरल फेलोशिप के लिए प्रार्थना पत्र लिखा। पिलानी से प्रिसिंपल मित्रा साहब ने भी एक पत्र इस संबध में लिखा।

अमेरिका से बुलावा

जून, 1958 में घासीराम के पास अमेरिका से एक पत्र आया। यह पत्र कुरांट संस्थान से था जिसमें घासीराम को न्यौता देते हुए 400 डॉलर प्रतिमाह देने का वचन था। भारतीय रूपयों के हिसाब से 2000 रूपयों का निमंत्रण था। घासीराम का सपना सच होने वाला था। लेकिन पहले अमेरिका जाने का प्रबंध भी तो करना था।

अमेरिका जाने बाबत प्रंबध

पासपोर्ट हेतु आवेदन पूर्व में ही कर दिया गया था। जून के अंत तक पासपोर्ट भी आ गया। अब आर्थिक प्रबंध अहम् था। मित्र आनंदीलाल रूंगटा की सलाह से जयपुर यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार व शिक्षा सचिव से आर्थिक सहयोग बाबत मिले, पर दोनों ही जगह से नकारात्मक जवाब मिला। उनका यही उत्तर था कि किराए का किसी योजना के तहत प्रबंध नहीं है। घासीराम रूआंसे होने को आ गए। उन्हें अपना सपना चूर होता दिखाई देने लगा। कहते हैं कि जब समस्या आती है तो उसका प्रयास करने पर कुछ हल भी निकलता है। यही घासीराम के साथ हुआ। आंनदीलाल रूंगटा के दिमाग में बिड़ला एज्यूकेशन ट्रस्ट, पिलानी का ख्याल आया। वहां से सम्पर्क करने पर २००० रूपये की स्वीकृति मिली। किराए में शेष आवश्‍यकता १००० रूपये थी। बचा कपड़ा आदि जिनका योग ५०० तो होना तय था।

घासीराम फिर जयपुर जाकर विधायक सुमित्रासिंह से मिले। अपनी जरूरत बताई। सुमित्रासिंह घासीराम को लेकर नाथूराम मिर्धा के पास गई। नाथूराम जी ने रामनिवास मिर्धा का सुझाव दिया। घासीराम रामनिवास जी के पास पहुंचे। रामनिवास जी ने जब घासीराम से जरूरत पूछी तो संकोची घासीराम ने १००० रूपये बताई। रामनिवास जी ने सहर्ष एक हजार की स्वीकृति दे दी। दूसरे दिन रामनिवास जी मिर्धा के सचिव ने घासीराम को १००० रूपये दे दिए। घासीराम को अफसोस था कि उसने अपनी जरूरत १५०० क्यों न बताई !

संकट ५०० का : घासीराम के अमेरिका किराये की तो व्यवस्था हो गई लेकिन छोटी-छोटी जरूरतों हेतु ५०० रूपये तो आवश्‍यक थे। इसी दौरान घासीराम ने बम्बई अपने पुराने विद्यार्थी महावीरप्रसाद शर्मा को पत्र लिखा। अमेरिका जाने व अर्थाभाव का उल्लेख स्वाभाविक था। महावीरप्रसाद ने अपने परिचितों से इसकी चर्चा की। पिलानी में घासीराम के शिष्‍य रहे चिड़ावा के विजयकुमार अड़ूकिया ने बम्बई से ५०० रूपये का मनिऑर्डर करवा दिया। घासीराम के लिए इस मदद के बाद अमेरिका जाने का रास्ता आसान हो गया।

अमेरिका के लिए प्रस्थान

१ सितम्बर, १९५८ ई. को दिल्ली से बम्बई होते हुए घासीराम लक्ष्य की ओर उड़ चले। घासीराम ने बीच राह में अपनी बनारस की सहपाठी प्रियवंदा शाह (जो लंदन यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी. कर रही थी) का आतिथ्य भी ग्रहण किया।

अमेरिका में स्वयं की स्थापना की दिशा : अमेरिका के न्यूयार्क हवाई अड्डे पर प्रो. बर्कोविट्ज ने घासीराम का स्वागत किया। बर्कोविट्ज संस्थान के निदेशक कुरांट के दामाद थे। डॉ. घासीराम अमेरिका जाकर डॉ. जी.आर. वर्मा हो गए और पढ़ाई का सिलसिला पुन: शुरू हो गया। सुबह ८ बजे से संस्थान के पुस्तकालय, शाम को ४-६, ६-८ व ८-१० बजे तक कक्षाओं में अध्ययन। कठोर अध्ययन के दौरान घासीराम की विशेष रूचि गणितीय भौतिकी में ज्यादा बनी। धीरे-धीरे घासीराम अमेरिका में स्वयं को स्थापित करने की दिशा में संलग्न होने लगे।

पत्नी रूकमणी की परेशानी

अमेरिका जाने के बाद घासीराम वर्मा की सहधर्मिणी रूकमणी के लिए समय बड़ा दुविधा मय हो गया। आस-पास का माहौल अनपढ़ रूकमणी को गौरी मेमों के जादू का भय दिखाता और घासीराम के वापिस न आने की संभावना व्यक्त करता। वह क्या करती ? अमेरिका से आया ससुराल में पत्र रूकमणी छिपकर सुनती। ऊहापोह की स्थिति में रहती लेकिन मन से उसे अपने भाग्य और अपने जीवन साथी पर भरोसा था।

बस वह भरोसा ही था कि घासीराम आज भी श्रीमती रूकमणी देवी के प्रति समर्पित हैं। हां, फर्क इतना अवश्‍य कि अब श्रीमती रूकमणी देवी घासीराम के साथ अमेरिका रहती हैं और हिन्दी, अंग्रेजी को समझ लेती हैं व पढ़ लेती हैं। उनके पति घासीराम सिर्फ उनके हैं।

परिवार

घासीराम व रूकमणी देवी को तीन पुत्र रत्न प्राप्त हुए।
बड़ा ओम, मंझला सुभाष और छोटा आनंद।

बढ़ते कदम

घासीराम को सितम्बर माह में फॉर्दम़ यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर बने। दस माह के ८ हजार डॉलर व गर्मियों के दो महिने के १३५० डॉलर यानि कुल ९३५० डॉलर साल भर के। घासीराम को वहां बी.ए. के दो कोर्स व एक कोर्स एम.एस-सी. व पी-एच.डी. के विद्यार्थियों को पढ़ाना होता था।

घासीराम बड़े मनोयोग से मेहनत कराते। इसी दौरान घासीराम ने एक अन्य महिला महाविद्यालय 'मैनहट्टन विले` में अतिरिक्त अध्यापन कराया। सर्वत्र उनकी प्रशंसा हुई। स्वयं की उपयोगिता सिद्ध कर घासीराम को अपना देश याद आया।

स्वदेश आगमन

घासीराम ६ जून, १९६१ को भारत के लिए रवाना हो लिए। सामान अधिक था सो हवाई मार्ग के बजाय जल मार्ग चुना। बीच रास्ते में घासीराम ने कुछ दिन यूरोप भ्रमण किया। गहन अनुभव लिए जो उनके जीवन की आज थाति हैं।

बम्बई आगमन पर डॉ. रविन्द्रकौर ने उनका स्वागत किया। श्रीमती कौर ने अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी. की थी। श्रीमती कौर के घर बम्बई में खाना खाया और ट्रेन पकड़ी। तीसरे दिन रात ११ बजे चिड़ावा पहुंचे। चिड़ावा से पिलानी गये और प्रो. दूलसिंह के घर जाकर आशीर्वाद लिया। मित्रा साहब से मिलकर भी खुशियां बांटी। उन्होंने बच्चों को लेकर पिलानी स्थापित होने का निमंत्रण दे दिया। फिर झुंझुनूं पहुंचे। वहां से अपने ससुराल नयासर गये। नयासर से सीगड़ी गांव पहुंचे तो डॉ. घासीराम को देखने सारा गांव उमड़ पड़ा। दो दिनों तक चौधरी लादूराम के घर मेला-सा रहा।

पिलानी प्रस्थान : दो दिन गांव में रूकने के बाद घासीराम अपने दो बच्चों और पत्नी को लेकर पिलानी पहुंचे। गृहस्थी जमने लगी। संघर्ष का दौर समाप्त हो चुका था।

प्रतिभा को सलाम

डॉ. घासीराम वर्मा पिलानी में अध्यापन कार्य में संलग्न थे लेकिन अमेरिका में उनकी दी गई श्रेष्‍ठ सेवाओं को भले अमेरिकन कैसे भूल सकते थे। वहां तो प्रतिभा का सम्मान होता है। बस इसी बदौलत दो वर्ष बाद अमेरिका किंग्स्टन की रोडे आयलैंड यूनिवर्सिटी के चैयरमेन का तार घासीराम को पिलानी में मिला। रोडे आयलैंड यूनिवर्सिटी को गणित के प्रोफेसर की तलाश थी; उन्होंने फोरदम यूनिवर्सिटी के प्रो. लेविस से घासीराम का पता ले प्रोफेसर के रूप में काम करने का निमंत्रण पहुंचाया था। तार के बाद नियुक्ति प्रस्ताव आया, जिसमें लिखा था कि आपको एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर देखना चाहते हैं और आपकी सेवा में तनख्वाह के रूप में ११ हजार डॉलर प्रतिवर्ष अर्पित करना चाहते हैं।

डॉ. घासीराम को और क्या चाहिए ? घर बैठे न्यौता आ गया। घासीराम ने वापिस नई दुनिया में जाने का मानस बनाया।

पैसा बना फिर संकट

घासीराम अमेरिका से जो पैसा लाए थे वो सारा घरवालों को दे चुके थे। अब क्या किया जाए ? इस बार अकेले नहीं बच्चों को साथ लेकर जाने की तय थी। एक खुद की, एक पत्नी की व दो बच्चों की आधी-आधी मिलाकर पूरी एक टिकट, कुल तीन टिकटों के पैसों का इंतजाम करना था। संयोग से 'एयर फ्रांस` के ट्रेवल्स एजेंट श्री यू.एस.जैन ने यह जाना तो वे डॉ. घासीराम के घर पहुंचे और उनकी एयर लाइन का टिकट खरीदने व भुगतान अमेरिका जाकर डॉलर में करने का प्रस्ताव दिया। घासीराम के घर गंगा चलकर आ गई। समस्या हल हो गई।

नियुक्ति पत्र के आधार पर अमेरिकन दूतावास से वीजा मिल गया और एयर फ्रांस से टिकटें ली।

पुन: अमेरिका रवाना : २ सितम्बर, १९६४ ई. को दिल्ली से डॉ. घासीराम अपने बच्चों व पत्नी के साथ अमेरिका की ओर उड़े। बीच में बच्चों को यूरोप दिखाया।

अमेरिका की धरा पर परिवार

न्यूयार्क पहुंचने पर घासीराम के मित्र प्रो. रूपचंद साहनी के छोटे भाई डॉ. बिधिचंद साहनी ने उनकी आगवानी की। न्यूयार्क दो दिन साहनी के घर ठहरे। यहीं से अपने विभागीय अध्यक्ष प्रो. पीज को फोन किया और वादे के अनुसार निर्धारित ट्रेन से किंग्स्टन पहुंचे।

किंग्स्टन समुद्र किनारे का छोटा-सा शहर है। वहां की आबादी मात्र एक हजार थी। जबकि अध्यनार्थ आने वाले छात्रों की संख्या १६ हजार।

ग्रीन कार्ड की प्राप्ति

गर्मियों की छुटि्टयों में उन्होंने ने ानल एरोनोटिक्स एंड स्पेस एडमिनेस्ट्रेशन (नासा) में सलाहकार का काम किया। यहीं प्रो. व्हाइट से मुलाकात हुई। प्रो. व्हाइट के पास नेवी की पचास हजार डॉलर की एक वार्षिक ग्रांट थी। उन्होंने अपने प्रोजेक्ट में घासीराम को भी जोड़ा। इस जुड़ाव के कारण घासीराम को ग्रीन कार्ड मिल गया। अब वे जब चाहें तब तक ग्रीन कार्ड (इमिग्रेंट वीजा) के बूते अमेरिका में रह सकते थे।
डॉ. जी.आर. वर्मा अर्थात् अपने घासीराम ने कई वर्षों तक प्रो. व्हाइट के प्रोजक्ट पर काम किया।

परिवार की प्रगति

परिवार में एक पुत्र का और आगमन हो चुका था। समय के साथ दोनों बड़े बेटों ने मेकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री ली। छोटा भी कुछ अंतराल के बाद इंजीनियर बन गया। दोनों बड़े बेटों ने अमेरिकन लड़कियों के साथ शादी की। सबसे बड़े पुत्र ओम की पत्नी का नाम मेरलिन व मंझले सुभाष की पत्नी का नाम लोरेटा है। दोनों लड़कों की एक-एक करके शादी हिन्दू और ईसाई दोनों धर्मों की मान्यता के अनुसार अमेरिका में ही सम्पन्न हुई। सबसे छोटे लड़के आनंद की शादी भारतीय लड़की भावना कटेवा से हुई। तीनों लड़के अमेरिका में इंजीनियर हैं व अपने भरे-पूरे परिवार के साथ खुशी से सद्दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं।

गर्मियों का सदुपयोग

मार्च, १९८० में बनारस हिन्दू विश्‍वविद्यालय के मददगार मित्र एस.नागराज ने 'राइट पैटर्सन एयर फोर्स बेस` पर व्याख्यान देने डॉ. घासीराम को बुलाया। उनके व्याख्यान से प्रभावित हो एक ग्रुप के इंचार्ज ने रिसर्च कार्य हेतु ग्रुप के साथ काम करने का आंमत्रण वर्मा को दिया। तब से लेकर गर्मियों की छुटि्टयों में डॉ. वर्मा ने सात-आठ साल तक लगातार उस ग्रुप के साथ काम किया।

बाद में समर फेकल्टी रिसर्च प्रोग्राम के तहत नेवल अंडर सी वार फेयर सेंटर से वर्मा को ग्रांट मिली। तीन साल गर्मियों में वहां काम किया। कठोर मेहनत व तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर डॉ. वर्मा ने हर जगह अपना लोहा मनाया।

काम ही पूजा

अमेरिका में डॉ. घासीराम वर्मा पूर्ण रूप से स्थापित हो गए।
रोडे आयलैंड विश्‍वविद्यालय उनकी कर्मस्थली रही। वे वहीं से सेवानिवृत्त हुए।
डॉ. वर्मा ने सदैव काम को ही पूजा समझा।

जनसेवा की प्रेरणा

डॉ. घासीराम वर्मा एक बार जब १९८२ में झुंझुनू आए तब देखा कि भरी दुपहरी में पढ़कर जाने वाली ग्रामीण लड़कियों की हालत खराब थी। तभी से उनके मन में आया कि छात्रावास बनाकर अगर इनके लिए आवास की व्यवस्था की जाए तो भला होगा। बस यहीं से दान की परम्परा शुरू हुई जो आज परवान पर पहुंच चुकी है और भारत विशेषकर राजस्थान में उनकी पहचान कायम कर चुकी है।
झुंझुनूं का महर्षि दयानंद बालिका छात्रावास (जिसमें ३०० से ज्यादा छात्राएं निवासित होकर अध्ययन करती हैं) व उससे सटा महर्षि दयानंद महिला विज्ञान महाविद्यालय डॉ. वर्मा की कहानी को स्वयंमेव उकेरते नजर आते हैं।

अमरता की ओर

राजस्थान का कोई भी छात्रावास शायद ही होगा जहां तक घासीराम का लाखों का सहयोग नहीं पहुंचा हो। खासकर कन्या शिक्षा की अलख जगाने वाले इस धूने के बाबा की दान साधना अप्रतिम है। अब तक वे देश भर के छात्रावासों, स्वयं सेवी संस्थाओं आदि के माध्यम से अपनी कड़ी मेहनत के कमाए हुए चार करोड़ से ज्यादा रूपये दान कर चुके हैं। वे जहां भी गए उदारता से लाखों लुटाए।

झुंझुनूं, नवलगढ़, सीकर, डीडवाना, नागौर, तारानगर, भादरा, साहवा, टोंक, फतेहपुर, अजमेर, किशनगढ़, जसवंतगढ़, मालपुरा, चित्तौड़गढ़, कपासन, गुलाबपुरा, कोटा, रतनगढ़, सूरतगढ़ आदि न जाने कितने छात्रावास डॉ. वर्मा की दानशीलता के मूक गवाह बने हुए हैं।

सांगलिया, टोंक, महाराजा सूरजमल भौक्षणिक संस्थान-दिल्ली, मुकुन्दगढ़, मंडावा, गोठड़ा, अलीपुर, भारू, नबीपुरा, सीगड़ा, जाखोद, लक्ष्मीपुरा-टोंक, संगरिया, बगड़, चिड़ावा, खेतड़ी, पिपराली, अलीपुर, चूरू, जमवारामगढ़, बिसाऊ आदि की अनेक शैक्षणिक व स्वयंसेवी संस्थाएं वर्मा की दानवीरता की आदाता रही हैं। अनेक साहित्यकार और साहित्यिक प्रकाशनों को भी वर्मा की साहित्यिक रूचि का लाभ मिला।

नेक नीयत को डॉ. वर्मा बड़ी तीक्ष्णता से ताड़ जाते हैं और फिर मुक्त हस्त से सहयोग करते हैं। डॉ. घासीराम वर्मा अपने इस सहयोग व विद्वता के बूते पर जीते जी अमर हो चुके हैं।

आज भी डॉ. घासीराम वर्मा अमेरिका से प्रतिवर्ष चार माह भारत नियमित आते हैं और जितना कुछ लाते हैं; सब श्रेष्ठ कार्यों में आहुत कर जाते हैं। धन्य हैं ऐसी दानवीरता।

प्रकाशित साहित्‍य


Title - CLIMBING THE HEIGHTS

Author - A. L. Roongta

Publisher -

Manaw Clayan Sansthan

Jhunjhunu (Rajasthan) INDIA



पुस्‍तक - उटज अजिर से गुरू शिखर तक

लेखक - डॉ. अस्‍त अली खां मलकांण

प्रकाशक -

श्री ग्रामोत्‍थान बालिका उच्‍च माध्‍यमिक विद्यालय,

लाडनूं रोड,

डीडवाना

मूल्‍य - 125 रूपये



पुस्‍तक - बामन बण्‍यो विराट

लेखक - डॉ. उदयवीर शर्मा

प्रकाशक -

राजस्‍थान साहित्‍य समिति

बिसाऊ, झुंझुनू


पुस्‍तक - अतीत की झलक

लेखक - डॉ. घासीराम वर्मा

प्रकाशक -

मानव कल्‍याण संस्‍थान

झुंझुनू

मूल्‍य - 50 रूपये

पुस्‍तक - करोड़पति फकीर

लेखक - राजेन्‍द्र कसवा

प्रकाशक -

महर्षि दयानंद महिला शिक्षण संस्‍थान समिति

झुंझुनू

मूल्‍य - 200 रूपये


पुस्‍तक - धन्‍य हुई जननी की कूख
लेखक - रामनिरंजन शर्मा ठिमाऊ
प्रकाशक -
रामनिरंजन शर्मा ठिमाऊ
ठिमाऊ को घर
पिलानी-333031
मूल्‍य - 80 रूपये

फोटो गैलरी

फोटो गैलरी-1
फोटो गैलरी-2
फोटो गैलरी-3
फोटो गैलरी-4
फोटो गैलरी-5
फोटो गैलरी-6
फोटो गैलरी-7

फोटो गैलरी - 1















फोटो गैलरी - 2





फोटो गैलरी - 3






फोटो गैलरी - 4





फोटो गैलरी - 5



फोटो गैलरी -6



फोटो गैलरी - 7