शिक्षा प्राप्ति ही ध्येय

जैसे-तैसे करके घासीराम ने नवीं तक का सफर तय किया। दसवीं में आते-आते आर्थिक संकट गहरा गया। जहां छात्रवृत्ति तीन रूपये हुई वहीं छात्रावास खर्चा पांच रूपये हो गया। दसवीं के अंतिम दिनों में घासीराम ने तीन टयूशन करवाए। तीन रूपये प्रति टयूशन मिले। राह कुछ आसान हुई लेकिन तब तक खाना खर्चा आदि भी आठ-नौ रूपये हो चुके थे। परंतु घासीराम का एकमात्र लक्ष्य जैसे-तैसे कर शिक्षा प्राप्ति रहा।
संयोग से भगवद् गीता के दूसरे अध्याय को कंठस्थ करके प्रथम पुरस्कार व एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला। अंग्रेजी कविता प्रतियोगिता में भी स्थान हासिल किया। इस इनाम से कुछ अतिरिक्त आमदनी हुई। इन रूपयों को घासीराम ने डाकघर में जमा करा दिया।
दसवीं की परीक्षा के बाद छुटि्टयों में घासीराम गांव नहीं गया और छात्रावास में रहकर चार-पांच टयूशन करवाएं। खर्चा काटकर कुल २६ रूपये बचा लिये।
डाकघर जमा कुल ४३ रूपये हो गया।

कॉलेज के सपने : घर की स्थितियों के विपरीत घासीराम का मन कॉलेज के सपने लेने लगा। उन दिनों कॉलेज की प्रवेश फीस ३५ रूपये थी। घासीराम के पास कुल जमा ४३ थे; सो सपने और बलवान हुए। दसवीं का परिणाम आने के बाद घासीराम ने घरवालों का मानस टटोला और नौकरी की अहमियत के बावजूद भी सहयोग की स्वीकृति पा ली।
कॉलेज में छात्रवृत्ति पांच रूपये मिलने लगी। टयूशनें भी बराबर जारी रहीं।
काम चलते-चलते १९४८ में इंटर कर ली।