बेरोजगारी की मार

जून, १९५० ई. में घासीराम ने बी.ए. करली। गांव आ गया। पर करने के लिए क्या ? स्नातक बनने की खुशी काफूर हो गई। घर में पत्नी और। घरवाले, गांववालों के उवाच। करे तो क्या करे। समय व्यतीत करना बड़ा मुश्‍िकल था। मंडावा जाकर पुस्तकालय में पढ़ना या फिर मित्र रामेश्‍वरलाल जांगिड़ के साथ गप्पे लगाना ही काम रह गया। सही है बेराजगारी बीमारी से कहीं अधिक दर्द भरी होती है।

ऐसे कठिन दौर में एक दिन घासीराम के पास इस्लामपुर (झुंझुनू) निवासी सहपाठी रहे राधेश्‍याम शर्मा का पत्र आया कि बी.एल. स्कूल, बगड़ (झुंझुनू) में गणित अध्यापक का पद खाली है। चले आओ।